Monday, August 12, 2013

हवा और पानी
आकाश  की अंधेरी छाती में किसी रात
बुनती है बारिश
और
सुबह दूर दूर तक धरती
हरियाये जाने को
जागती रहती है। 

Tuesday, May 29, 2012

मन के भीतर 
तुम 


तुम्‍हारे भीतर 
मैं


मेरे भीतर
मन 








29 मई 2012


इस दुपहर में जलते हए


पसीने से गलते हुए




समझ आती है 


खौलते तेल में


जीरा की पीड़ा 

Thursday, February 3, 2011

पंक्तिबद्ध

आज अपने साढे़ तीन वर्ष के बेटे का नर्सरी स्कूल में दाखिला कराने के लिए सुबह नौ बजे से दोपहर एक बजे तक सपरिवार पंक्ति में खड़ा रहा। बेटे से उसका और माता-पिता का नाम पूछा गया जिसका उसने वही जवाब दिया जो था तब कहीं जाकर हमारी चार घंटे की ‘‘तपस्या’’ समाप्त हुई और अगर दाखिला मिला तो उसकी आरंभ होगी।

Tuesday, February 1, 2011

अर्जेंटीना की कहानी

अर्जेंटीना
किसान, बाघ और लोमड़ी

बहुत सालों पहले की बात है एक स्थानीय बूढ़ा अपने खेत की जुताई कर रहा था। वह बैलों को छड़ी से हाँकते हुए पुराने और भारी हल के साथ जुताई कर रहा था। वह आदमी अपने बैलों के नाम पुकार कर उन्हें सजग रखे हुए था और जुताई को संचालित कर रहा था जिसे वे समझते थे।
जोर लगाओ बैल, सूरको, कोलोराडो, चलो बैल
वह जुताई के काम में इतना लीन था कि भयानक शत्रु यानी एक बाघ की उपस्थिति को भाँप न सका, जिसने खेत के पास छलाँग लगायी और दबे पाँव उसके पास आ गया। उस आदमी ने अपना काम रोक दिया और बैल भय से काँपने लगे।
मैं आया हूँ कि तुम मुझे खाने के लिए एक बैल दो- बाघ ने कहा।
ओह नहीं, श्रीमान बाघ, मैं अपने बैलों में से एक भी नहीं दे सकता, वे मुझे बहुत प्यारे हैं-घबराये हुए किसान ने जवाब दिया।
-तब तो तुम्हें मुझे दोनों देना होगा।
-श्रीमान बाघ, कृपा कर मुझ पर इतनी ज्यादती न करें। मुझ पर रहम करो।
-फिर मैं तुम्हें बैलों के साथ खाऊँगा-बाघ ने जवाब दिया जो कि अपने शिकार पर झपटने को तैयार था।
-नहीं श्रीमान बाघ, तुम मुझे कैसे खाओगे। मेरा परिवार बहुत गरीब है और उसे मेरी और बैलों की जरूरत है-व्यग्र किसान ने दोबारा कहा।
-मैं तुम्हें खाने जा रहा हूँ।
-नहीं श्रीमान, कैसे तुम मुझे खाओगे।
जब वे किसे खाये और किसे ना खाये की बातें कर रहे थे तभी वहाँ नजदीक से एक लोमड़ी गुजरा। उसने उनकी बातचीत सुनी और उस आदमी को बचाने का प्रस्ताव दिया। लोमड़ी घनी पत्तियों के पीछे छिप गया और कड़क व भारी आवाज में चिल्लाया- मित्र क्या तुमने यहाँ से किसी बाघ को गुजरते हुए नहंी देखा है? जिसे मारने के लिए दो सौ कुत्ते खोजते हुए घूम रहे हैं।
बाघ भारी भय से घिर गया। वह जितना हो सकता था सिकुड़ गया और स्थिर बना रहा और जमीन से चिपक गया।
-उसे कहो कि तुमने मुझे नहीं देखा है, यदि मैं तुम्हें खाने से इंकार करता हूँ तो-धीमे से बाघ ने आदमी से कहा यह भरोसा करते हुए कि वह बाघों का शिकारी है।
-नहीं श्रीमान, मैंने बहुत समय से बाघ को यहाँ गुजरते हुए नहीं देखा है।
-कैसे तुमने नहीं देखा मेरे दोस्त? और क्या यह ढेर पड़ा है तुम्हारे पास? ऐसा लगता है कोई बाघ फैला पड़ा है।
-कृपया उसे कहो कि बडे़ घोडे़ हैं।
-वे बड़े घोडे़ हैं श्रीमान जो कि मेरे पास बुआई के लिए हैं।
-यदि वे बडे़ घोड़े हैं तो उन्हें इस चमडे़ की थैली के भीतर रख दो जो वहाँ तुम्हारे पास है।
-कृपया तुरंत ही मुझे उस थैली के भीतर रख दो। समय बरबाद मत करो-बाघ ने आदमी से विनती करते हुए कहा।
उस आदमी ने जितनी जल्द हो सके बाघ को उस थैली के अंदर रख दिया और उससे कहा
-हो गया श्रीमान हो गया श्रीमान देखते नहंी कैसे मैं तुम्हारी आज्ञा मानता हूँ।
-उसे बांध दो मित्र, उस थैली के मुँह पर एक गाँठ बांध दो ताकि वह बड़ा फिर से खाली न हो जाय।
-तुमने थैली तो बांध दी लेकिन उसका मुँह खुला नहीं रखा-बाघ ने किसान से कहा।
आदमी उस थैली की मुँह को जितना बांध सकता था, बांध दिया।
-यह थैली बहुत पिलपिली है दोस्त, इसे कुल्हाड़ी के हत्थे से फैला दो, देर मत करो।
-मैंने किया जो तुमने कहा किन्तु इसका ख्याल रखा कि कोई मुझसे न खेले, देखो तुम मुझे तुरंत ही खाने वाले थे ना बहादुर।
आदमी ने कुल्हाड़ी उठायी और अपनी पूरी शक्ति के साथ बाघ के सिर पर वार किया जब तक कि वह मर न गया।
ऐसा चालाक था लोमड़ी जिसने आदमी की जान बचायी और बाघ की क्रूरता को मात दी।

Monday, July 26, 2010

प्लेटो ने पाया कि दर्षन और कला के बीच हमेषा से ही प्रतिद्वंदिता रही है।
दर्षन और कला दोनों का दावा था कि वे सत्य के सबसे करीब हैं
यह प्रतिद्वंदिता आज तक जारी है

Sunday, July 25, 2010

rain

इतनी बारिश कि
सब कुछ सूखा
न हरा
न भरा
कुछ मरा
सिर्फ इतनी बारिश

Friday, September 18, 2009

मेरी कुछ कवितायें

1
आत्मज दुख
होते होंगे किसी कोटर में
लौटने के लिए आतुर
सुनो
थोड़ा पहाड़ होने दो
ढलान पर
बनने दो पेड़
किसी उरोज पर
तय होगा
शब्दों का अवसान
कोई रात को
लिखे भी तो कैसे
प्रतीक्षा
यदि पनप रही होगी कहीं
तो भी रूकूं कैसे
मुझे लौटने दो
बन बन कर
ताप
उच्छवास
ताकि किसी घनघोर समय में
रच सको
अपनी इच्छा
बेपरवाह।


2
किसी ‘शायद‘ की ओट में
नहीं घेरता भय
क्या जवाब दूँगा
माइक्रान भर कोशिकाओं को
कि लौट आया
बेवजह
प्रश्नों की अंत्येष्टि के बाद
कौन करता होगा तेरहवीं
कौन साल भर
जलाता होगा दीया
अस्थियों के स्वाद से
कितनी इच्छाएं होती होंगी जवाँ
निःशब्द के संसर्ग से ही शायद
जन्म लेती होगी पीड़ा
दुनिया करवट ले
तो बनेगी जगह
फिर लौटने की
रातों को सो सकेंगे देव
बिना खलल
अपने ख्वाब में वे
बेहिचक करें शिकार
लौटते रहेंगे शब्द
सबके सिराहने के पास
बेहिचक
बेवजह।

3
उसकी पसलियों पर
नहीं होता सवेरा
नींद में दूर धकेल देती सूरज
पिंडलियों तक
उभर आती स्वप्न की सतह
पनप रहे होंगे स्पर्श
किसी पुरुष की फुनगी में
झूठ को कहीं सच में
तराश रही होगी इच्छा
सुनो
जब आओ भीतर
तो कुंडी चढ़ा देना
यहाँ उपहार की तरह
नहीं मिलेगी वापसी
जापते रहना
मनके की तरह उम्र
कभी सुनी है तुमने
पुरखों की आवाज
इस माँसल गली में
जिससे नहीं होता लौटना
पड़े रहो चुपचाप
बिस्तर पर
उतार रही होगी देह
मृत्यु
किसी कोने में।

4
मत कहो
कि सिर्फ तुम्हारा है अंधेरा
जहाँ ओस की तरह
फुनगियों पर पड़ी रहती चीख
चींटियों की तरह
कतार में नही आती स्मृतियाँ
बेमानी सा है सच
हड्डियों को हसीन बनाती
एक मिलीमीटर त्वचा
अपने ही स्वप्न में
वीभत्स लगता अपना ही चेहरा
नींद को खून से
अलग करती किडनी
मृत्यु की बेरूखी पर
झल्ला जाते बिस्तर
सफेद परिचारिकाएँ
उतारती बूंद बूंद धोखा
दवा की बू में लिपटी फुसफुसाहट
उड़ती सिराहने के आसपास
अचानक
पंख फैला उड़ जाती पीड़ा
देह के डंगाल से।



5
दोपहर की नींद में
घुटने मोड़कर
लेटी रहती पीड़ा
दीवार की ओर पीठ किये
बूंद बूंद रिसता मन
पसलियों में टीसती प्रतीक्षा
और मुखातिब होता खुद से
नाहक ही बने हैं प्रार्थना
छूटती हरेक कोशिकाओं की गिरफ्त
सभी रतजगी आँखों में
पनियल उबासी
स्पर्श की झुर्रियों को
असमंजस में छोड़
विदा लेता लहू
आत्मा के सूखे होंठ में
निवेदन की कोई बुदबुदाहट नहीं
उम्र की आँच में
वाष्पित होते जीवद्रव्य
उड़ चलते दूर देश
देह का संस्कार
बचा रहेगा अंतिम परासरण तक
नींद की दोपहर में
आराम फरमाती स्मृतियाँ
और स्त्रियाँ
सुन्नत की महक से भरी।

6
एक अधेड़ शब्द ने
दी जगह
मुझे होने की
स्वागत ऐसे ह होता रहे
तो कितना अच्छा हो
कि स्पर्श की तितलियाँ
पसलियों पर घुमड़ती रहे
वह मुस्कुरात है
और मैं
उसे ख्यालों में खींच लाता हूँ
गर्भनाल की कसम
यह सब तुम ही कर रही हो
पीठ पर
क्यों नहीं होती औरतें
इतनी लकधक होगी
माया
तो फिर रोने की दवा लेनी होगी
यह तो वक्षों की शुक्र है
कि वह है
एक अधेड़ कविता ने
दी फुरसत
खोने की।